ज्योतिष में कुछ कुरीतियां हैं जैसे- कालसर्प योग, साढ़ेसाती तथा मांगलिक दोष आदि। हमारे ज्योतिषी कलसर्प दोष से जनता को भयभीत करते हैं जबकि यह पूरी तरह भ्रामक है। किसी सर्वमान्य ग्रंथ में इसका उल्लेख नहीं है। दुनिया में यह तथाकथित योग जिनकी कुण्डली में है, वे अन्य लोगों की तरह सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुंचे हैं। इन लोगों ने कभी कोई ग्रह शांति नहीं करवाई। ऐसे जातकों का पूरा परिचय ‘जर्नल आफ एस्ट्रोलाजी’ के डॉ. केएन राव द्वारा लिखित लेख में पढ़ा जा सकता है।
दूसरा है शनि की साढ़ेसाती। जिसके नाम से जनमानस डर जाता है। यह भी सच है कि शनि की साढ़ेसाती में कितनों का जीवन चरमोत्कर्ष पर होता है। साढ़ेसाती के साथ हम दशाओं के प्रभाव का अध्ययन नहीं करते हैं। तीसरा हैं मांगलिक दोष। इसके द्वारा जनता को गुमराह किया जाता है और विशिष्ट पूजन के नाम पर खर्चे की एक लम्बी लिस्ट बना दी जाती है। जबकि इस दोष का निवारण अधिकांश कुण्डलियों में ग्रह समायोजन में ही निहित रहता है। इसी प्रकार की कुछ और रूढ़िवादी परंपराएं ज्योतिष में प्रचलित हैं, जैसे- हर बारह वर्ष में जब सिंह में वृहस्पति आता है, कुछ लोग कहते हैं कि गोदावरी व गंगा के बीच प्रदेशों में विवाह वर्जित है। कुछ लोग यहां तक तर्क दे डालते हैं कि इन दिनों देवता दक्षिण में चले जाते हैं। एक शोध के अनुसार 167 ऐसे दंपत्तियों की कुण्डलियों, जिनका विवाह सिंहस्थ वृहस्पति में हुआ था, उनका अध्ययन करने से यह सिद्ध हुआ कि विवाह के तीस-चालीस साल बाद भी सिंहस्थ वृहस्पति में विवाह करके महिलाएं सुखी, संपन्न व सधवा हैं।
हम विद्वानों से यह जानना चाहते हैं कि कालसर्प योग का जब किसी ग्रंथ में उल्लेख नहीं है तो इसकी उपज कहां से हुई और इसको क्यों फैलाया जा रहा है। जब ज्योतिषी काल का अर्थ ‘मृत्यु’ और सर्प का अर्थ ‘सांप’ बताते हुए कालसर्प योग को दोनों का समन्वय बताते हैं, तो सामान्य लोग भय के कारण मृत्प्राय हो जाते हैं। आजकल कालसर्प योग पर पुस्तकें लिखने वाले लेखकों की यह प्रवृत्ति बनती जा रही है कि कालसर्प योग की तरह राहु-केतु के दुष्प्रभाव को कुछ जन्मकुण्डलियों के आधार पर कम करने के लिए मिथ्या और निरर्थक धार्मिक अनुष्ठान करवाए जाते हैं। वे पीड़ादायक प्रभाव बिना राहु-केतु के भी जन्मकुण्डलियों में अधिक स्पष्ट दिखाई देते हैं। वे पुस्तकें साहित्यिक अधिकार के आडम्बर के साथ लिखी जाती हैं। परन्तु इन पुस्तकों में ज्योतिषीय और धार्मिक शब्दावली का प्रयोग जन्मकुण्डलियों की सतही और धूर्ततापूर्ण व्याख्या के लिए किया जाता है। इससे उन ज्योतिषियों के मन में भय पैदा हो गया है जिन्होंने इस विषय पर गहन अध्ययन नहीं किया है। ज्योतिष के प्रसिद्ध ग्रंथों में वृहत्पाराशर होराशास्त्र, मानसागरी, जातकपारिजात, जातकाभरण, फलदीपिका व सारावली आदि प्रमुख हैं। इनमें से किसी भी ग्रंथ में कालसर्प योग का उल्लेख नहीं है। जो भी ज्योतिषी कालसर्प योग की बात करता है, उसने कालसर्प योग के भय को जीवित रखना अपने ज्योतिषीय जीवन का उद्देश्य बना लिया है।
उन्होंने कहा कि हर 15 साल में राहु-केतु के बीच में जब बाकी ग्रह पड़ जाते हैं तो साल में तीन से छह महीने यह स्थिति बनी होती है। जिसका अर्थ संसार में छह सौ करोड़ लोगों में से 80-90 करोड़ लोगों की कुण्डली में तथाकथित कालसर्प योग रहता है। जो लोग यह कहते हैं कि जिन्होंने पूर्व जन्म में सांप को मारा, उनकी कुण्डली में यह योग रहता है, तो इसका अर्थ होगा कि इन लोगों ने कम से कम 90 करोड़ सर्पों को मारा होगा। जनगणना की तरह सर्पगणना नहीं होती है, इसलिए यह नहीं मालूम कि दुनिया में 80-90 करोड़ सांप है भी या नहीं।
यह लेखक के अपने विचार हैं
keyword: jyotish, kalsarp yog
यह एक अच्छा लेख है। इसे पढ़कर लोगों का भ्रम दूर होगा और पाखंडियों के जाल में नहीं फंसेंगे। इस लेख के लिए शुक्रिया।
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